आचार्य श्रीराम शर्मा >> वेदान्त दर्शन वेदान्त दर्शनश्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत है वेदान्त दर्शन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समर्पण
जिन्होंने महर्षि बादरायण की तरह वेदान्त-सूत्रों का साक्षात्कार किया,
वेदमूर्ति कहलाए, वेदमन्त्रों की आदि स्रोत्र परब्रह्म और वेद जननी
गायत्री में पुन: अभेद स्थापित कर उन तक पहुँचने के लिए साधकों को
ब्रह्म-सूत्रों की युगानुरूप व्याख्या एवं विधा प्रदान की, स्वयं
ब्रह्मनिष्ठ आदर्श जीवन जिया, जीवन साधना के परिपाक से ब्रह्मबीजों का
प्रचुर मात्रा में उत्पादन कर, जन-जीवन में उनके फलित होने की जनसुलभ
विधि-व्यवस्था बनाई। जिनके द्वारा प्रदत्त स्थूल-सूक्ष्म चेतन-सूत्रों के
सहारे वेदान्त-दर्शन नवीन संस्करण प्रस्तुत करना संभव हुआ, उन्हीं
ऋषियुग्म के पाद-पद्मों में यह श्रद्धा-सुमन समर्पित है।
नव्यं संस्करणं यस्य कृपादृष्टया प्रकाशितम्।
वेदान्तदर्शनञ्चैतत् तस्मा एव समर्पितम्।।
वेदान्तदर्शनञ्चैतत् तस्मा एव समर्पितम्।।
प्रकाशकीय
युगऋषि ने आर्षग्रन्थों के दुर्लभ ज्ञान को जन सुलभ बनाने का
‘‘श्रद्धा-प्रज्ञा’’ युक्त जो
पुरुषार्थ प्रारंभ
किया था; उसी क्रम में शान्तिकुंज में, उन्हीं के अनुशासन एवं मार्गदर्शन
में, उनके ही द्वारा स्थापित वेद-विभाग अपनी अकिंचन शक्ति के साथ
कर्त्तव्यरत है। ऋषियुग्म के निर्देश सूत्रों के आधार पर क्रमश: चार वेद,
108 उपनिषद आदि के नवीन संस्करण प्रकाशित होने के बाद षड्दर्शनों के नवीन
संस्करणों के प्रकाशन का क्रम बना। उस प्रयास के प्रथम पुष्प के रूप में
‘सांख्य एवं योगदर्शन’ का संयुक्त संस्करण पाठकों तक
पहुँचाया
जा चुका है। अब उसके द्वितीय पुष्प के रूप में ‘न्याय एवं
वैशेषिक
दर्शन’ का यह संयुक्त संस्मरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
पूर्व की भाँति, इस संस्करण का मूल आधार उनके द्वारा प्राकशित मूल संस्करण तथा उनके द्वारा दिए गए सामाजिक निर्देश सूत्रों को ही रखा गया है। उन निर्देशों के अनुसार ही दार्शनिक अभिव्यक्तियों को अधिक स्पष्ट एवं अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए उक्त दर्शन ग्रन्थों के संदर्भ में विभिन्न विज्ञ-पुरुषों को विचारों और शोध प्रबन्धों का भी सहयोग लिया गया है। मूल संस्करणों में उनके द्वारा लिखी गई भूमिकाओं की विषय वस्तु को ही उपयुक्त उप शीर्षकों में उभारने वाली शंकाओं एवं विसंगतियों के समुचित समाधान भी जिज्ञासुओं तक पहुँचाने का प्रयास इस संस्करण के माध्यम से किया गया है।
अध्येताओं की सुविधा के लिए इन दर्शनों में प्रयुक्त सूत्रों एवं महत्त्वपूर्ण शब्दों की अनुक्रमणिका भी परिशिष्ट के रूप में जोड़ दी गई है। आशा है कि द्रष्टाओं-ऋषियों की जीवन दृष्टि से विभिन्न पहलुओं को युगानुरूप धारा में जोड़ने के युगऋषि के सत्पुरुषार्थ का समुचित लाभ स्वाध्यायशीलों एवं जिज्ञासुओं तक इस विभाग तक विनम्र प्रयास द्वारा पहुँचाया जा सकेगा।
पूर्व की भाँति, इस संस्करण का मूल आधार उनके द्वारा प्राकशित मूल संस्करण तथा उनके द्वारा दिए गए सामाजिक निर्देश सूत्रों को ही रखा गया है। उन निर्देशों के अनुसार ही दार्शनिक अभिव्यक्तियों को अधिक स्पष्ट एवं अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए उक्त दर्शन ग्रन्थों के संदर्भ में विभिन्न विज्ञ-पुरुषों को विचारों और शोध प्रबन्धों का भी सहयोग लिया गया है। मूल संस्करणों में उनके द्वारा लिखी गई भूमिकाओं की विषय वस्तु को ही उपयुक्त उप शीर्षकों में उभारने वाली शंकाओं एवं विसंगतियों के समुचित समाधान भी जिज्ञासुओं तक पहुँचाने का प्रयास इस संस्करण के माध्यम से किया गया है।
अध्येताओं की सुविधा के लिए इन दर्शनों में प्रयुक्त सूत्रों एवं महत्त्वपूर्ण शब्दों की अनुक्रमणिका भी परिशिष्ट के रूप में जोड़ दी गई है। आशा है कि द्रष्टाओं-ऋषियों की जीवन दृष्टि से विभिन्न पहलुओं को युगानुरूप धारा में जोड़ने के युगऋषि के सत्पुरुषार्थ का समुचित लाभ स्वाध्यायशीलों एवं जिज्ञासुओं तक इस विभाग तक विनम्र प्रयास द्वारा पहुँचाया जा सकेगा।
भूमिका
भारतीय चिन्तन धारा में जिन दर्शनों की परिगणना विद्यमान है, उनमें शीर्ष
स्थानीय दर्शन कौन सा है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर एक ही नाम उभरता है, वह
है-वेदान्त। यह भारतीय दर्शन के मन्दिर का जगमगाता स्वर्णकलश है-
दर्शनाकाश का देदीप्यमान सूर्य है। वेदान्त की विषय वस्तु, इसके उद्देश्य,
साहित्य और आचार्य परम्परा आदि पर गहन चिन्तन करें, इससे पूर्व आइये,
वेदान्त शब्द का अर्थ समझें।
वेदान्त का अर्थ-
वेदान्त का अर्थ है- वेद का अन्त या सिद्धान्त। तात्पर्य
यह है- ‘वह शास्त्र जिसके लिए उपनिषद् ही प्रमाण है। वेदांत में
जितनी बातों का उल्लेख है, उन सब का मूल उपनिषद् है। इसलिए वेदान्त
शास्त्र के वे ही सिद्धान्त माननीय हैं, जिसके साधक उपनिषद् के वाक्य हैं।
इन्हीं उपनिषदों को आधार बनाकर बादरायण मुनि ने ब्रह्मसूत्रों की रचना
की।’ इन सूत्रों का मूल उपनिषदों में हैं। जैसा पूर्व में कहा
गया
है- उपनिषद् में सभी दर्शनों के मूल सिद्धान्त हैं।
वेदान्त का साहित्य
ब्रह्मसूत्र-
उपरिवर्णित विवेचन से स्पष्ट है कि वेदान्त
का मूल ग्रन्थ
उपनिषद् ही है। अत: यदा-कदा वेदान्त शब्द उपनिषद् का वाचक बनता दृष्टिगोचर
होता है। उपनिषदीय मूल वाक्यों के आधार पर ही बादरायण द्वारा अद्वैत
वेदान्त के प्रतिपादन हेतु ब्रह्मसूत्र सृजित किया गया। महर्षि पाणिनी
द्वारा अष्टाध्यायी में उल्लेखित ‘भिक्षुसूत्र’ ही
वस्तुत:
ब्रह्मसूत्र है। संन्यासी, भिक्षु कहलाते हैं एवं उन्हीं के अध्ययन योग्य
उपनिषदों पर आधारिक पराशर्य (पराशर पुत्र व्यास) द्वारा विरचित ब्रह्म
सूत्र है, जो कि बहुत प्राचीन है।
यही वेदांत दर्शन पूर्व मीमांसा के नाम से प्रख्यात है। महर्षि जैमिनि का मीमांसा दर्शन पूर्व मीमांसा कहलाता है, जो कि द्वादश अध्यायों में आबद्ध है। कहा जाता है कि जैमिनि द्वारा इन द्वादश अध्यायों के पश्चात् चार अध्यायों में संकर्षण काण्ड (देवता काण्ड) का सृजन किया था। जो अब अनुपलब्ध है, इस प्रकार मीमांसा षोडश अध्यायों में सम्पन्न हुआ है। उसी सिलसिले में चार अध्यायों में उत्तर मीमांसा या ब्रह्म-सूत्र का सृजन हुआ। इन दोनों ग्रन्थों में अनेक आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि बीस अध्यायों के रचनाकार कोई एक व्यक्ति थे, चाहे वे महर्षि जैमिनि हों अथवा बादरायण बादरि। पूर्व मीमांसा में कर्मकाण्ड एवं उत्तर मीमांसा में ज्ञानकाण्ड विवेचित है। उन दिनों विद्यमान समस्त आचार्य पूर्व एवं मीमांसा के समान रूपेण विद्वान् थे। इसी कारण जिनके नामों का उल्लेख जैमिनीय सूत्र में है, उन्हीं का ब्रह्मसूत्र में भी है। वेदान्त संबंधी साहित्य प्रचुर मात्रा में विद्यमान है, जिसका उल्लेख अग्रिम पृष्ठों पर ‘वेदान्त का अन्य साहित्य और आचार्य परम्परा’ शीर्षक में आचार्यों के नामों सहित विवेचित किया गया है।
यही वेदांत दर्शन पूर्व मीमांसा के नाम से प्रख्यात है। महर्षि जैमिनि का मीमांसा दर्शन पूर्व मीमांसा कहलाता है, जो कि द्वादश अध्यायों में आबद्ध है। कहा जाता है कि जैमिनि द्वारा इन द्वादश अध्यायों के पश्चात् चार अध्यायों में संकर्षण काण्ड (देवता काण्ड) का सृजन किया था। जो अब अनुपलब्ध है, इस प्रकार मीमांसा षोडश अध्यायों में सम्पन्न हुआ है। उसी सिलसिले में चार अध्यायों में उत्तर मीमांसा या ब्रह्म-सूत्र का सृजन हुआ। इन दोनों ग्रन्थों में अनेक आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि बीस अध्यायों के रचनाकार कोई एक व्यक्ति थे, चाहे वे महर्षि जैमिनि हों अथवा बादरायण बादरि। पूर्व मीमांसा में कर्मकाण्ड एवं उत्तर मीमांसा में ज्ञानकाण्ड विवेचित है। उन दिनों विद्यमान समस्त आचार्य पूर्व एवं मीमांसा के समान रूपेण विद्वान् थे। इसी कारण जिनके नामों का उल्लेख जैमिनीय सूत्र में है, उन्हीं का ब्रह्मसूत्र में भी है। वेदान्त संबंधी साहित्य प्रचुर मात्रा में विद्यमान है, जिसका उल्लेख अग्रिम पृष्ठों पर ‘वेदान्त का अन्य साहित्य और आचार्य परम्परा’ शीर्षक में आचार्यों के नामों सहित विवेचित किया गया है।
वेदान्त दर्शन का स्वरूप और प्रतिपाद्य-विषय
‘वेदों’ के सर्वमान्य, सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त ही
‘वेदान्त’ का प्रतिपाद्य हैं। उपनिषदों में ही ये
सिद्धान्त
मुख्यत: प्रतिपादित हुए हैं, इसलिए वे ही ‘वेदान्त’
के पर्याय
माने जाते हैं। परमात्मा का परम गुह्य ज्ञान वेदान्त के रूप में सर्वप्रथम
उपनिषदों में ही प्रकट हुआ है।
‘वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्था:............’
(मुण्डक. 3.2.6)। ‘वेदान्ते परमं गुह्यम् पुराकल्पे प्रचोदितम्’ (श्वेताश्ववतर. 6.22) ‘यो वेदादौ स्वर: प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठित:’ (महानारायण, 10.8) इत्यादि श्रुतिवचन उसी तथ्य का डिंडिम घोष करते हैं। इन श्रुति वचनों का सारांश इतना ही है कि संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका का मूल स्रोत्र एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र प्रमुखतया ब्रह्म के स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के संबंध में भी विचार प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत् है-
‘वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्था:............’
(मुण्डक. 3.2.6)। ‘वेदान्ते परमं गुह्यम् पुराकल्पे प्रचोदितम्’ (श्वेताश्ववतर. 6.22) ‘यो वेदादौ स्वर: प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठित:’ (महानारायण, 10.8) इत्यादि श्रुतिवचन उसी तथ्य का डिंडिम घोष करते हैं। इन श्रुति वचनों का सारांश इतना ही है कि संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका का मूल स्रोत्र एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र प्रमुखतया ब्रह्म के स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के संबंध में भी विचार प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत् है-
1- प्रथम अध्याय में वेदान्त से संबंधित
समस्त वाक्यों
का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो
बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी प्रतीत
होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का
स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन
नहीं है एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट
हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध
प्रकार के विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया
है।
2- द्वितीय अध्याय का विषय
‘अविरोध’ है।
इसके अन्तर्गत श्रुतियों की जो परस्पर विरोधी सम्मतियाँ हैं, उनका मूल आशय
प्रकट करके उनके द्वारा अद्वैत सिद्धान्त की सिद्धि की गयी है। इसके साथ
ही वैदिक मतों (सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत आदि) एवं अवैदिक सिद्धान्तों
(जैन, बौद्ध आदि) के दोषों एवं उनकी अयथार्थता को दर्शाया गया है। आगे
चलकर लिंग शरीर प्राण एवं इन्द्रियों के स्वरूप दिग्दर्शन के साथ पंचभूत
एवं जीव से सम्बद्ध शंकाओं का निराकरण भी किया गया है।
3- तृतीय अध्याय की विषय वस्तु साधना है।
इसके अन्तर्गत
प्रथमत: स्वर्गादि प्राप्ति के साधनों के दोष दिखाकर ज्ञान एवं विद्या के
वास्तविक स्रोत्र परमात्मा की उपासना प्रतिपादित की गयी है, जिसके द्वारा
जीव ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में कर्मकाण्ड
सिद्धान्त के अनुसार मात्र अग्निहोत्र आदि पर्याप्त नहीं वरन् ज्ञान एवं
भक्ति द्वारा ही आत्मा और परमात्मा का सान्निध्य सम्भव है।
4- चतुर्थ अध्याय साधना का परिणाम होने से
फलाध्याय है।
इसके अन्तर्गत वायु, विद्युत एवं वरुण लोक से उच्च लोक-ब्रह्मलोक तक
पहुँचने का वर्णन है, साथ ही जीव की मुक्ति, जीवन्मुक्त की मृत्यु एवं
परलोक में उसकी गति आदि भी वर्णित है। अन्त में यह भी वर्णित है कि ब्रह्म
की प्राप्ति होने से आत्मा की स्थिति किस प्रकार की होती है, जिससे वह
पुन: संसार में आगमन नहीं करती। मुक्ति और निर्वाण की अवस्था यही है। इस
प्रकार वेदान्त दर्शन में ईश्वर, प्रकृति, जीव, मरणोत्तर दशाएँ,
पुनर्जन्म, ज्ञान, कर्म, उपासना, बन्धन एवं मोक्ष इन दस विषयों का प्रमुख
रूप से विवेचन किया गया है।
वेदान्त का अन्य साहित्य और आचार्य परम्परा
ब्रह्मसूत्र के अतिरिक्त वेदान्त दर्शन का और भी साहित्य प्रचुर मात्रा
में संप्राप्त होता है, जो विभिन्न आचार्यों ने विविध प्रकारेण
ब्रह्म-सूत्र आदि ग्रन्थों पर भाष्य, वृत्तियाँ टीकाएँ आदि लिखी हैं।
यद्यपि प्राचीन आचार्यों में बादरि, आश्मरथ्य, आत्रेय, काशकृत्स्न,
औडुलोमि एवं कार्ष्णाजिनि आजि के मतों का भी वर्णन प्राप्त है; किन्तु
इनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। आइये जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनका व उनके
आचार्यों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करें।
1- आद्य शंकराचार्य-
ब्रह्म-सूत्र पर
सर्वप्राचीन एवं
प्रामाणिक भाष्य आद्य शंकराचार्य का उपलब्ध होता है। यह शांकरभाष्य के नाम
से प्रख्यात है। विश्व में भारतीय दर्शन एवं शंकराचार्य के नाम से जितनी
ख्याति प्राप्त की है, उतनी न किसी आचार्य ने प्राप्त की और न ग्रन्थ ने।
शंकराचार्य का जन्म 788 ई. में तथा निर्वाण 820 ई. में हुआ बताया जाता है,
इनके गुरु गोविन्दपाद तथा परम गुरु गौड़पादाचार्य थे। इनके ग्रन्थों में
ब्रह्मसूत्र-भाष्य (शारीरिक भाष्य), दशोपनिषद् भाष्य, गीता-भाष्य,
माण्डूक्यकारिका भाष्य, विवेकचूड़ामणि, उपदेश-साहस्री आदि प्रमुख हैं।
2- भास्कराचार्य-
आचार्य शंकर के समकालीन
भास्कराचार्य
त्रिदण्डीमत के वेदन्ती थे। ये ज्ञान एवं कर्म दोनों से मोक्ष स्वीकार
करते हैं। इनके अनुसार ब्रह्म के शक्ति-विक्षेप से ही सृष्टि और स्थिति
व्यापार अनवरत चलता है। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक लघु भाष्य लिखा है।
3- सर्वज्ञात्म मुनि-
ये सुरेश्वराचार्य के
शिष्य थे,
जिन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक पद्यात्मक व्याख्या लिखी है, जो
‘संक्षेप-शारीरिक’ नाम से प्रसिद्ध है।
4- अद्वैतानन्द-
ये रामानन्द तीर्थ के
शिष्य थे,
इन्होंने शंकराचार्य की शारीरिक भाष्य पर
‘ब्रह्मविद्याभरण’
नामक श्रेष्ठ व्याख्या लिखी है।
5- वाचस्पति मिश्र-
वाचस्पति मिश्र ने भी
शांकर- भाष्य
पर ‘भामती’ नामक उत्तम व्याख्या ग्रन्थ लिखा है।
‘ब्रह्मतत्त्व समीक्षा’ नामक वेदान्त ग्रन्थ इन्हीं
का है।
6- चित्सुखाचार्य-
तेरहवीं सदी के
चित्सुखाचार्य ने
वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘तत्त्व-दीपिका’ नाम से
लिखा,
जिसने उन्हीं के नाम से ‘चित्सुखी’ के रूप में विशेष
प्रसिद्धि प्राप्त की।
7- विद्यारण्य स्वामी-
श्रृंगेरी पीठ के
प्रतिष्ठित यति
श्री विद्यारण्य स्वामी ने वेदान्त विषयक कई ग्रन्थ लिखे, जिनमें
‘पंचदशी’ का विशेष स्थान है। इनके अन्य ग्रन्थ हैं-
जीवन्मुक्ति विवेक, विवरण प्रमेय संग्रह, बृहदारण्यक वार्तिक सार आदि।
8- प्रकाशात्मा-
इन्होंने पद्मपादकृत
पंचपादिका पर
‘विवरण’ नाम की व्याख्या का सृजन किया है। इसी के
आधार पर
‘भामती प्रस्थान’ से पृथक् ‘विवरण
प्रस्थान’
निर्मित हुआ है।
9- अमलानन्द-
अमलानन्द (जो अनुभवानन्द के
शिष्य थे) ने
भामती पर ‘कल्पतरु’ नामक व्याख्या एवं ब्रह्मसूत्र पर
एक
वृत्ति भी लिखी है। इसका अपर नाम ‘व्यासाश्रम’ था।
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